जो जगत हमें सामने दिख रहा है, वह गतिशील है। उसमें परिवर्तन होता रहता है। जीवन धर्म का निर्वाह करने के लिए मनुष्य को चलना ही पड़ेगा। जो लोग पुराने समय में ही खोये रहना चाहते है, वे जीवन धर्म के विरोधी है। धर्म कहता है कि प्रगतिशील बन कर ही मनुष्यता का कल्याण किया जा सकता है।
व्याप्त जगत में परमात्मा गतिशील है। सब चलायमान है। तुम्हारा जो मन है, वह भी चलायमान है। लोग कहते है कि मन को स्थिर बनाओ। यह कहना त्रुटिपूर्ण है। कहना होगा कि मन को एक विशेष दिशा में चलाओ। मन अगर स्थिर हो गया तो मन की मृत्यु हो गई। जहाँ गतिहीनता है, वहीं मृत्यु है, इसलिए गति जीवन का धर्म है। अस्तित्व रहने से देश-काल पात्र है। इनका स्वभाव है परिवर्तित होना। देश-काल पात्र के भीतर जो रहेंगे, उनको चलना पड़ेगा। जीवनधर्म के लिए चलना कर्तव्य है।
कई हजार साल से मानव समाज चलते-चलते जहां तक पहुंचा था, आज उससे बहुत आगे बढ़ा है, क्योंकि चलना उसका धर्म है। अगर किसी में प्राचीनता का मोह हो और उस मोह के कारण वह बोले कि कई हजार साल पहले जो समाज था, जो पुरानी समाज व्यस्था थी, वह अच्छी थी तो उसका मतलब यही हुआ कि वह अधोगति का समर्थक है। उसकी गति पीछे की ओर है। यह गतिशीलता नही है। यह मानव धर्म नही कहा जा सकता।
जो लोग गंगासागर को, गंगा को गंगोत्री की तरफ ले जाने की कोशिश करें, वे अधोगति के समर्थक है। वे मानव समाज का कल्याण नही चाहते है। वे समाज की प्रगति नही चाहते है। तो गति है जीवन का धर्म और गति के जो विरोधी है, वे है मृत्यु के समर्थक। रुको मत, आगे बढ़ो- यही है जीवनधर्म, यही है जीवन का नारा।
अब, देखा जाए कि प्रगति क्या है? क्या एक ही विशेष गति अनादि काल से अनंत काल तक रहेगी या इसमें प्रगति होना संभव है? यह भी देखना है कि कैसे प्रगति हो सकती है? यह प्रगति कहाँ होगी? सृष्टिधारा में प्रथम सृष्टि की उत्पत्ति मन में होती है,- ‘मैं’ कुछ बनाऊंगा।
एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में बैठ कर यह ध्यान कर रहा है कि मैं इस रोग की दवा बनाऊंगा। तो दवा बनाने के पहले दवा मन में बन गई। सृष्टि की प्रथम उत्पत्ति मन में हुई। और मन का यह जो बीज है, बनाने की यह जो चाह है, यह जब अधिक शक्तिशाली हो जाती है, तब इसके चरित्र का ढांचा पदार्थ के रूप में, जड़ में रूपांतरित हो जाता है। मन की धातु जड़ पंचभूत में रूपांतरित हो जाता है। मन की धातु जड़ पंचभूत में रूपांतरित हो गई। यह जो चाह है, एषणा है, वह एषणा ही सृष्टि का बीज है। पहले सृष्टि की चाह, उसके बाद सृष्टि। अर्थात जीवन यात्रा में कुछ आगे बढ़ना है तो पहले मन की धरती पर कुछ नया तैयार करना होगा।
लेकिन मन में तो एक दीवार है। तुम आसानी से मन वाली दीवार को तोड़ सकते हो। भौतिक दीवार को तोड़ने के लिए अधिक मेहनत की जरूरत होती है। अब देखो, भक्ति क्या है? ‘भज्’ धातु में क्तिन् प्रत्यय के योग से ‘भक्ति’ शब्द बनता है अर्थात भक्ति में भजनात्मक भाव है। ‘भजन’ शब्द क्या है?
‘परमात्मा’ मेरी परागति है और उसकी ओर मुझे चलना है’ यह भावना जब मन में बैठ जाती है और उस भावना से प्रेरित होकर मनुष्य जब उसकी ओर चलता है तो यही होता है ‘भजन’। जहां बाह्य अभिव्यक्ति है उसको ‘भजन’ कहते है और जहां आंतरिक अभिव्यक्ति है उसको ‘भक्ति’ कहते है।
एक ही चीज या भावना, जब बाहर व्यक्त होती है और लोग भी उसे समझ रहे है, तब उसका नाम है भजन। और जब वह आंतरिक है, भीतर की ओर, अंदर की ओर चल रही है, तब वह है भक्ति। अर्थात दोनों एक ही चीज है। एक ही चीज के दो रूप है। तुम साधक हो। तुम भक्ति को जगा लो। तुम शक्तिशाली बनों। अपने आगे बढ़ो। दुनिया को सुख दो, शांति दो, समृद्धि दो। दुनिया तुम्हारी कीमत समझे। तुम लोगो की जय हो।
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