हर
वर्ष 14 सितंबर को देश में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। यह
मात्र एक दिन नहीं बल्कि यह है अपनी मातृभाषा को सम्मान दिलाने का दिन। उस भाषा को सम्मान दिलाने का जिसे लगभग तीन चौथाई हिन्दुस्तान समझता है, जिस भाषा ने देश को स्वतंत्रता दिलाने में अहम भूमिका निभाई। उस हिन्दी भाषा के नाम यह दिन समर्पित है जिस हिन्दी ने हमें एक-दूसरे से
जुड़ने का साधन प्रदान किया। हिन्दी हमारी मातृभाषा है। जब बच्चा पैदा होता है तो वह पेट से ही भाषा सीख कर नहीं आता। भाषा का पहला ज्ञान उसे आसपास सुनाई देनी वाली आवाजों से प्राप्त होता है
और भारत में अधिकतर घरों में बोलचाल की भाषा हिन्दी ही है। ऐसे में भारतीय बच्चे हिन्दी को आसानी से समझ लेते हैं।
हिन्दी की हालत
आज देश में हिन्दी के हजारों न्यूज चैनल और अखबार आते हैं लेकिन जब
बात प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान की होती है तो उनमें अव्वल दर्जे पर अंग्रेजी
चैनलों को रखा जाता है। बच्चों को अंग्रेजी का विशेष ज्ञान दिलाने के लिए अंग्रेजी
अखबारों को स्कूलों में बंटवाया जाता है लेकिन क्या आपने कभी हिन्दी अखबारों को
स्कूलों में बंटते हुए देखा है। आज जब युवा पढ़ाई पूरी करके इंटरव्यू में जाते हैं
तो अकसर उनसे एक ही सवाल किया जाता है कि क्या आपको अंग्रेजी आती है? बहुत कम जगह हैं जहां लोग
हिन्दी के ज्ञान की बात करते हैं।
भाषा
के पंडित, राजनीतिज्ञ, बुद्विजीवी, नौकरशाह और लेखक सभी बढ़-चढ़कर इस
समारोह में शामिल होकर भाषणबाजी करते हैं। मनोरंजन के लिए कवि सम्मेलन एवं
सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। पर्व-त्यौहार की तरह लोग इस दिवस
को मनाते हैं। कुछ सरकारी सेवक पुरस्कार या प्रषस्ति पत्र पाकर अपने को जरूर
कृतार्थ या कृतज्ञ महसूस करते हैं। खास करके राजभाषा विभाग से जुड़े लोग, कामकाज में हिन्दी को शत-प्रतिशत लागू करने की बात हर बार की तरह पूरे
जोश-खरोश के साथ दोहराते हैं। सभी हिन्दी की दुर्दशा पर अपनी छाती पीटते हैं और 14
सितम्बर की शाम खत्म होते ही सब-कुछ बिसरा देते हैं। आजादी से लेकर अब तक 'हिन्दी दिवस" इसी तरह से मनाया जा रहा है। दरअसल वार्षिक अनुष्ठान के
कर्मकांड को सभी को पूरा करना होता है। पर इस तरह के भव्य आयोजनों से क्या होगा? क्या इससे हिन्दी का प्रचार-प्रसार होगा या हिन्दी को दिल से आत्मसात्
करने की जिजीविषा लोगों के मन-मस्तिष्क में पनपेगी?
बात सिर्फ शैक्षिक संस्थानों तक सीमित नहीं है। जानकारों की नजर
में हिन्दी की बर्बादी में सबसे अहम रोल हमारी संसद का है। भारत आजाद हुआ तब
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवाजें उठी लेकिन इसे यह दर्जा नहीं दिया गया
बल्कि इसे मात्र राजभाषा बना दिया गया। राजभाषा अधिनियिम की धारा 3 [3] के तहत यह कहा
गया कि सभी सरकारी दस्तावेज और निर्णय अंग्रेजी में लिखे जाएंगे और साथ ही उन्हें
हिन्दी में अनुवादित कर दिया जाएगा। जबकि होना यह चाहिए था कि सभी सरकारी आदेश और
कानून हिन्दी में ही लिखे जाने चाहिए थे और जरूरत होती तो उन्हें अंग्रेजी में
बदला जाता।
सच तो
यह है कि ज़्यादातर भारतीय अंग्रेज़ी के मोहपाश में बुरी तरह से जकड़े हुए हैं। आज
स्वाधीन भारत में अंग्रेज़ी में निजी पारिवारिक पत्र व्यवहार बढ़ता जा रहा है
काफ़ी कुछ सरकारी व लगभग पूरा ग़ैर सरकारी काम अंग्रेज़ी में ही होता है, दुकानों
वगैरह के बोर्ड अंग्रेज़ी में होते हैं, होटलों
रेस्टारेंटों इत्यादि के मेनू अंग्रेज़ी में ही होते हैं। ज़्यादातर नियम कानून या
अन्य काम की बातें किताबें इत्यादि अंग्रेज़ी में ही होते हैं, उपकरणों या यंत्रों को प्रयोग करने की विधि अंग्रेज़ी में लिखी होती है, भले ही उसका प्रयोग किसी अंग्रेज़ी के ज्ञान से वंचित व्यक्ति को करना हो।
अंग्रेज़ी भारतीय मानसिकता पर पूरी तरह से हावी हो गई है। हिंदी (या कोई और भारतीय
भाषा) के नाम पर छलावे या ढोंग के सिवा कुछ नहीं होता है।
माना कि आज के युग में अंग्रेज़ी का ज्ञान ज़रूरी है, कई सारे देश अपनी युवा पीढ़ी को अंग्रेज़ी सिखा रहे हैं पर इसका मतलब ये नहीं है कि उन देशों में वहाँ की भाषाओं को ताक पर रख दिया गया है और ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेज़ी का ज्ञान हमको दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में ले आया है। सिवाय सूचना प्रौद्योगिकी के हम किसी और क्षेत्र में आगे नहीं हैं और सूचना प्रौद्योगिकी की इस अंधी दौड़ की वजह से बाकी के प्रौद्योगिक क्षेत्रों का क्या हाल हो रहा है वो किसी से छुपा नहीं है। सारे विद्यार्थी प्रोग्रामर ही बनना चाहते हैं, किसी और क्षेत्र में कोई जाना ही नहीं चाहता है। क्या इसी को चहुँमुखी विकास कहते हैं? दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित व विकासशील देशों में वहाँ का काम उनकी भाषाओं में ही होता है। यहाँ तक कि कई सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अंग्रेज़ी के अलावा और भाषाओं के ज्ञान को महत्व देती हैं। केवल हमारे यहाँ ही हमारी भाषाओं में काम करने को छोटा समझा जाता है।
माना कि आज के युग में अंग्रेज़ी का ज्ञान ज़रूरी है, कई सारे देश अपनी युवा पीढ़ी को अंग्रेज़ी सिखा रहे हैं पर इसका मतलब ये नहीं है कि उन देशों में वहाँ की भाषाओं को ताक पर रख दिया गया है और ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेज़ी का ज्ञान हमको दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में ले आया है। सिवाय सूचना प्रौद्योगिकी के हम किसी और क्षेत्र में आगे नहीं हैं और सूचना प्रौद्योगिकी की इस अंधी दौड़ की वजह से बाकी के प्रौद्योगिक क्षेत्रों का क्या हाल हो रहा है वो किसी से छुपा नहीं है। सारे विद्यार्थी प्रोग्रामर ही बनना चाहते हैं, किसी और क्षेत्र में कोई जाना ही नहीं चाहता है। क्या इसी को चहुँमुखी विकास कहते हैं? दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित व विकासशील देशों में वहाँ का काम उनकी भाषाओं में ही होता है। यहाँ तक कि कई सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अंग्रेज़ी के अलावा और भाषाओं के ज्ञान को महत्व देती हैं। केवल हमारे यहाँ ही हमारी भाषाओं में काम करने को छोटा समझा जाता है।
राजनेताओं
ने तो हमेशा इसके साथ सौतेला व्यवहार किया है। उन्होंने हिन्दी को सिद्धांत और
व्यवहार के रूप में कभी लागू करने की कोशिश ही नहीं की। वास्तव में यह कभी
हिन्दुस्तान की भाषा बन ही नहीं सकी। भारत के पूर्ववर्ती शासकों ने हिन्दी को एक
ऐसा राजनीतिक मुद्दा बना दिया कि यह उत्तर और दक्षिण के विवाद में फंसकर गेहूँ की
तरह पिस कर रह गई।
आज की हिन्दी लोकभाषाओं से उतनी जुड़ी हुई नहीं है, जितना पहले थी। आंचलिक उपन्यास तथा गीत-कहानी आज कम लिखे जा रहे हैं। फनीष्वर नाथ रेणु की रचना'मैला आंचल" की लोकप्रिययता से कौन नहीं वाकिफ है? इस उपन्यास के असंख्य शब्द आज भी पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार के लोगों की जुबान पर मौजूद हैं। दूसरी समस्या आज हिन्दी के साथ यह है कि अब इस भाषा के पुरोधा अन्यान्य भाषाओं एवं बोलियों के शब्दों को आत्मसात् करने में कंजूसी करते हैं।
आज की हिन्दी लोकभाषाओं से उतनी जुड़ी हुई नहीं है, जितना पहले थी। आंचलिक उपन्यास तथा गीत-कहानी आज कम लिखे जा रहे हैं। फनीष्वर नाथ रेणु की रचना'मैला आंचल" की लोकप्रिययता से कौन नहीं वाकिफ है? इस उपन्यास के असंख्य शब्द आज भी पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार के लोगों की जुबान पर मौजूद हैं। दूसरी समस्या आज हिन्दी के साथ यह है कि अब इस भाषा के पुरोधा अन्यान्य भाषाओं एवं बोलियों के शब्दों को आत्मसात् करने में कंजूसी करते हैं।
सरकार को यह समझने की
जरूरत है हिन्दी भाषा सबको आपस में जोड़ने वाली भाषा है तथा इसका प्रयोग करना हमारा
संवैधानिक एवं नैतिक दायित्व भी है. अगर आज हमने हिन्दी को उपेक्षित करना शुरू
किया तो कहीं एक दिन ऐसा ना हो कि इसका वजूद ही खत्म हो जाए। समाज में इस बदलाव की जरूरत
सर्वप्रथम स्कूलों और शैक्षिक संस्थानों से होनी चाहिए। साथ ही देश की संसद को भी मात्र हिन्दी पखवाड़े में मातृभाषा का सम्मान
नहीं बल्कि हर दिन इसे ही व्यवहारिक और कार्यालय की भाषा बनानी चाहिए।
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